सीपी सिंह : शिक्षाविद् जिसने मिशनरी स्कूलों के एकाधिकार को खत्म कर दिया अच्छी शिक्षा का विकल्प

शिक्षक दिवस पर विशेष
आज शिक्षक दिवस है। एक ऐसा दिन जब हम उन सभी शिक्षकों को याद करते हैं जिनसे हमने कुछ न कुछ सीखा होता है और जिनके प्रयासों से न सिर्फ हम अपने जीवन में सफल होते हैं बल्कि हमारे व्यक्तिव का भी निर्माण होता है। शिक्षक दिवस की इस परंपरा में कई बार हम उस जगह को ही भूल जाते हैं, जहां पहली बार हम उन पथ-प्रदर्शक से मिलते हैं। जी हां, हम बात कर रहे हैं उन विद्यालयों की जहां न सिर्फ हमें शिक्षक मिलते हैं बल्कि जीवन जीने के सैंकड़ों सबक भी हर रोज हम अपने बस्तों में इकट्ठा करते हैं।
इस शिक्षक दिवस पर हम प्रयास करेंगे उन स्कूलों से आपको रूबरू कराने का, जहां न सिर्फ आपने तालीम हासिल की है बल्कि जीवन का सबसे सुनहरा समय भी वहीं बीता है। साथ ही, हम बताएंगे उन शख्शियतों के बारे में जिन्होंने उस दौर में ‘पब्लिक’ स्कूल की नींव रखी, जब सरकारी तंत्र की सैकड़ों चुनौतियां उनके सामने थीं।
इस श्रृंखला में सबसे पहले हम बात करेंगे लखनऊ पब्लिक स्कूल की :

राजधानी के अगर प्रतिष्ठित स्कूलों की बात करें तो लखनऊ पब्लिक स्कूल का नाम अग्रणी पंक्तियों में आता है। वट वृक्ष के समान खड़ा यह विद्यालय समूह कई वर्षों के अथक परिश्रम और गुणवत्ता परक शिक्षा का ही परिणाम है। राजधानी समेत रायबरेली और उन्नाव में संचालित इस विद्यालय ने बीते तीन दशकों में सफलता के कई नए प्रतिमान स्थापित किए हैं। लेकिन सफलता की यह ऊंची इमारत एक दिन में तैयार नहीं हुई है।

वर्ष 1988 में स्व. सीपी सिंह ने कानपुर रोड स्थित एलडीए सेक्टर डी में कुछ बच्चों के साथ यह पौधा रोपा था। एक तरफ जहां सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा था और मिशनरी स्कूल हर किसी की पहुंच से दूर थे, ऐसे में ‘पब्लिक’ स्कूल के इस नए कांसेप्ट को न सिर्फ प्रोत्साहन मिला बल्कि अभिभावकों ने भी अपना रुख इनकी तरफ कर लिया। एक दशक से भी कम समय में विद्यालय की एक नई शाखा भी प्रारंभ हो गई। स्व. सीपी सिंह के बाद विद्यालय प्रबंधन की बागडोर संभालने वाले उनके पुत्र लोकेश सिंह बताते हैं कि वर्तमान समय में विद्यालय की दस ब्रांच लखनऊ, रायबरेली और उन्नाव में कुशलता पूर्वक संचालित हो रही हैं तथा दो नई ब्रांच शुरू होने वाली हैं। उन्होंने बताया कि विद्यालय को इस स्तर तक पहुंचाने में पिता जी की प्ररेणा ही है। उन्होंने अपने जीवन काल में विद्यालयों के स्तर के अंतर को बहुत बारीकी से देखा था। समाज का मध्यमवर्गीय परिवार चाह कर भी अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा नहीं दिलवा पा रहा था। इस तरह के ‘पब्लिक’ न सिर्फ अभिभावकों की उस मांग को पूरा कर रहे थे बल्कि बच्चों को गुणवत्ता परक शिक्षा और आधुनिक रूप से दक्ष भी बना रहे थे।

लखनऊ पब्लिक स्कूल अपने कृत-संकल्प “शिक्षार्थ आइए, सेवार्थ जाइए” पर उतनी ही मजबूती से खड़ा है जैसा वह 1988 में अपने स्थापना के समय था।